सुनहरी सुबह का इंतज़ार
झिलमिल चमकती किरणें झरोखों से कमरे के अंदर झाँकती है, आहट पाते ही अंधेरा चोरों की तरह मुँह छिपाकर घर के पीछवाडे़ से दबे-पाँव भाग जाता है। धीरे-धीरे पूरा घर रौशनी से भर उठता है। अँगड़ाई लेते हुए, नई सुबह का स्वागत जब यूँ होता है तो तन-मन दोनों स्फूर्ती से भर उठतें हैं। परिन्दें अपने घोंसलों से पर फड़फड़ाते हुए, स्वच्छ नीले-आकाश में चारे की तलाश में उड़ जातें हैं। पेड़ों पर पक्षियों के कलरव की आवाज़ें सुरमयी हो गई है।
नदी के बहते पानी में, चरवाहों के अधनंगेे बच्चें, अट्खेलियाँ करते हुये गोते लगा रहे हैं। सूरज की चमकीली, मखमली धूप, नदी के बहते पानी पर, पिघली चाँदी के बहने का आभास कराती है। काँच जैसी चमकती पानी की बूँदें हवा में उछल-उछल कर चलायमान धारा में विलीन होती ही रहती हैं।
अब सूरज की तपिश धीरे-धीरे बढ़ रही है। देवदार के पेड़ों की परछाईयाँ, सुबह की धूप के आंनद की तरह आहिस्ता-2 सिमटती ही जा रही है। सूरज शोले बरसाने लगा है। बिना परिश्रम ही माथे से जल की बूंदें छलक जाती है।
किसी छायादार वृक्ष के नीचे शीतलता को महसूस करना एक ‘सुखद अहसास’ है। जैसे सब दुःख-दर्द भूलकर माँ की गोद में सर रखने जैसा सुकून हो। आँखों को चैंधियाने-वाली रोशनी। तपिस ऐसी कि चमड़ी जल जाए। सूखता कंठ और पानी की प्यास। मानो यह प्यास जीवन-भर अनबुझ ही रहेगी।
सूर्य देवता अपने बहुबल का प्रचण्ड प्रदर्शन कर, अब थोड़ा शांत हुऐ है। दिन बढ़ती उम्र की तरह धीरे-धीरे ढ़लने लगा है। तपिश भी कम हो रही है। साॅवली सांझ बन-सँवर कर घर से निकल कर शायद रास्ते में है। शाम के चार बजने वाले है। दिन का उजाला थके हुए मजदूरों की भाँति अब सुस्ता रहा है। बोझिल कदमों से वह भी अपने घर की ओर वापस लौटने लगा है। दूर से धूल उड़ाती गाय-भैसों का झुँड़, अपने गले की घण्टी का मोहक राग छेड़कर अनायास ही मन को आनंदित करता है। साँझ कब बैलों की पूँछ पकड़ धीरे-धीरे गाँव में दाखि़ल हो गई, पता ही न चला। साँझ को देख, दिन का उजाला अपने देश लौट गया। स्याह-नीले रंग में अंधेरा शाम का आँचल बनकर, सबको अपने आगोश में ले चुका है। हवा ठण्डी हो कर मंद-मंद बह रही है। थोड़ी ही दूरी पर बाँध की विस्तृत-जलराशी और उसमें टिमटिमाती विद्युत-बल्बों की कतारें, सितारो के जमीं पर होने का अहसास करा रही हैं।
कुछ एक घरो को छोड़कर जिनमें बिजली आ चुकी है। बाकी घर आज भी लालटेन, लैम्प और ढिबरियों से ही रोशन हैं। गाँव वालों के डगमगाते विश्वास की तरह, ‘कल सब ठीक हो जायेगा।’ हवा के एक झोंके से डिबरी की डबडबाती लौ, बुझने तक संघर्ष करती है।
अचानक वह सुखदायनी हवा तेज हवा का झोका बन घर के आंगन में दाखिल होती है। ढिबरी बुझ जाती है। छोटू जो बड़ी सी थाली में पानीवाली दाल में चावल के चंद दाने अपनी नन्ही-नन्ही अंगुलियों से समेट रहा था। रोने लगता है। एक बुझी-बुझी किन्तू मधुर आवाज, ‘छुटकी!!...’
शायद यह आवाज़ रसोई से आयी थी। उस महिला के चेहरे पर, चूल्हे की आग मन में चल रहे विचारों की आँधी का प्रतिरुप बनकर प्रतिबिम्बित हो रही थी। अभी एक महीने पहले ही छोटू का पिता, उसे पूरे परिवार के साथ इस अंधेरे से जूझने को हमेशा के लिए छोड़ गया।
तभी छुटकी माचिस की तीली जलाकर डूबते-उतराते मन में आस का संचार करती है। बुझी लौ फिर से जल उठती है। सांवली सी छुटकी, छोटू को अपनी दोनो चोटियाँ दिखाती है। लाल फीते की फूलदार गूंथी चोटियाँ वह हाथ मे पकड़ मुस्कुराती है। और छोटू भी उसे देखकर हँसता है। उन दोनों को हँसता देख उनकी माँ, जो अभी विचारों की सुनामी में डूब-उतरा रही थी। बाहर आ जाती है। उसके होठ भी मुस्कुरानें को मजबूर हो ही जाते हैं। सुनहरी सुबह के इंतज़ार में रात धीरे-धीरे और गहरी होती जाती है।
सतगुरू शर्मा
(लखनऊ)
9559976047