बाहर बरखा बरस रही है,
अंदर सूखा सावन है।
मन की बात समझे ना
जो मेरा मनभावन है।।
बाहर झिर-झिर झिरता सावन,
मान का ताप बढ़ाए है।
टिप-टिप बारिश की बूंदें,
विरह का राग सुनाए है।।
गरज-गरज कर, बरस-बरस कर;
जो तुमको पास हमारे लाए थे।
वही है मेघा वही है बिजली,
क्यों रह-रह कर हमें डराये रे।।
बूंदों का अब रुख पे गिरना,
याद पुरानी लाए है।
टूट-टूट कर दिल ये रोता
पल-पल तुम्हे बुलाए है।।
सतगुरू शर्मा
03.08.2018