आज कुछ यादें बह निकलीं,
कि आज फिर पुराने दिनों की याद में
दिल भर आया,
यह सख़्त और मजबूत इंसान
आज फिर बच्चा बनके
लिपट माँ से खूब रोया,
कि आज फिर बरसो बाद
उसकी हथेली ने मेरे माथे को चूमा,
और सब..
और सब उलझनों को भूल
आज फिर मैं सुकून से सोया,
पुराने बक्से में बंद
मेरे बचपन का खिलौना..
क्या निकला!
कि मेरा बचपन मेरे अंदर से झाँकने लगा
जिसे मैं बहुत पीछे छोड़ आया,
आज फिर वह बचपन लौट आया,
माँ के हाथों की खीर खाकर
वही स्वाद वही लज़्जत ...
शायद मेरा बचपन ...
इक आहट और सपना टूटा!!!
मगर आँखों के किनारे अब भी गीले थे
कि बचपन की ख़ुश्बू से
अब भी मेरा मन महक रहा था।
एक सपना मीठा सा...
सतगुरू शर्मा